गुरुत्व-विमर्श
"आकृष्टिशक्तिश्च मही तथा यत्, खस्थं गुरुं
स्वाभिमुखं स्वशक्त्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति, समे समत्वात् क्व पतत्वियं
खे।।"
भास्कराचार्य, गोलाध्याय, (१११४
ई.) गुरुत्व
(Gravity) वैशेषिक दर्शन के अनुसार ठोस और द्रव्य के पतन
का कारण 'गुरुत्व' है। यह अदृश्य होता है और इसका अनुमान पतन कर्म से
होता है। यह पदार्थ संयोग, प्रयत्न और बल के कार्य करने का विरोध
करता है। 1 इस परिभाषा से यह स्पष्ट
हो जाता है कि पिण्ड के आद्यपतन् रूप कर्म का कारण 'गुरुत्व' ही
है। यदि हम गुरुत्व के अन्तर्गत किसी पिण्ड के पतन का विचार करें
तो, हमें यह मानना होगा कि पदार्थ के सूक्ष्म अवयवों का पतन भी गुरुत्व
के अन्तर्गत हो रहा है, जिससे कि पिण्ड और उसके अवयवों में तार्कित
समानता बनी रहे। 2 उपर्युक्त धारणा द्वारा
इस निष्कर्ष को दिया जा सकता है कि गुरुत्व पदार्थ के अवयवों का गुण है
इस हेतु अवयवी (पिण्ड) का भी गुण है। अतएव जहाँ तक गुरुत्व के अन्तर्गत
पिण्ड के पतन का प्रश्न है बृहत् पिण्ड वैसे ही व्यवहार करते हैं जैसे
कि लघु पिण्ड। परन्तु भौतिकी के क्षेत्र में सोलहवीं शताब्दी तक
अनभिज्ञता व्यापत थी। अरस्तू (Aristotle) का सिद्धान्त 3 प्रचलित था। जिसके अनुसार
पिण्ड का पतन उसके भार पर निर्भर करता है, जितना अधिक पिण्ड का भार
होता है उतना ही शीघ्र उसका पतन होता है। बिना मत-मतान्तर के यह
सिद्धान्त 'गैलेलियो' (१५९०) के काल तक प्रभावी था, परन्तु उसने यह
स्थापित किया कि सभी पिण्डों का पतन समान दर से होता है, परन्तु यह
धारणा उन पिण्डों को प्रभाव क्षेत्र से दूर रखती है जो इतने अधिक हल्के
हों कि उनका पतन वायु के प्रतिरोध से अवरुद्ध हो जाय। वेग पदार्थ को
यदि हम व्यापक माने तो गुरुत्व भी वेग का ही प्रकार विशेष सिद्ध होता
है। सूर्य सिद्धान्तकार 4 ने भूगोलाध्याय में पृथ्वी
को विवेचित करते हुए कहा है कि सर्वत्र गोलाकार होने के कारण स्व स्व
स्थानों पर स्थित व्यक्ति स्वयं को अवकाश में पृथ्वी के ऊपर समझते हैं।
अत: सभी की अधोदिशा पृथ्वी के केन्द्र की ओर होगी ।
चित्र सं० १३ इस हेतु पिण्डों का पतन
पृथ्वी के समस्त स्थानों पर केन्द्राभिमुख ही होता है। यदि यह प्रश्न
उपस्थित हो कि पिण्डों का पतन पृथ्वी केन्द्राभिमुख ही क्यों होता
है? भास्कराचार्य ने इसका स्पष्ट विवेचन निम्न प्रकार से किया है।
- 5 जैसे पृथ्वी अन्तरिक्ष
में स्थित किसी भारी पिण्ड को अपनी ओर आकर्षित करती है, ठीक उसी प्रकार
पिण्ड भी स्वयं के भार से पृथ्वी का आकर्षण करता है। तात्पर्य यह है कि
ब्रह्माण्ड का प्रत्येक पिण्ड दूसरे पिण्ड को अपनी ओर आकर्षित करता है।
दोनों ही में यह आकर्षण समान होता है जो पतन कर्म में परिणत होकर हमें
अनुभूत होता है। दोनों ही पिण्ड परस्पर एक दूसरे को समान रूप से अपनी
तरफ आकर्षित कर रहे हैं, अत: दोनों में से किसका पतन हो रहा है यह नहीं
कहा जा सकता। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पृथ्वी के
समान अन्य पिण्ड भी आकर्षण का गुण रखते हैं। जब हम इस प्रकार से आकर्षण
का निगमन करते हैं तो इसे गुरुत्वाकर्षण (Gravitation) कहते हैं और जब
हम केवल पृथ्वी के आकर्षण बल के सम्बन्ध में विचार करते हैं तो इसे
गुरुत्व कहते (gravity) हैं। दो पिण्डों के मध्य कार्यरत आकर्षण बल
के इस सिद्धान्त की तुलना न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम से की जा
सकती है। 6 सूर्यसिद्धान्तकार ने
ग्रहों की गति को अतीव वैज्ञानिक पद्धति से प्रतिपादित किया है। इसके
माध्यम से प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण का अनुमान स्पष्टत: हो जाता
है। इन संदर्भों का उल्लेख 'खगोल-भौतिकी (Astrophysics) और
'सूर्यसिद्धान्त' के तुलनात्मक अध्ययन हेतु किया गया है। 7 'सूर्यसिद्धान्त' और
'खगोल भौतिकी' को आधार मानते हुए पृथ्वी के आकार और अन्तर्ग्रहीय दूरी
पर एक तुलनात्मक अध्ययन किया गया है जो अधोलिखितानुसार है- पृथ्वी
का अर्धव्यास = ६.३७ x १०८/८०० सें.मी. या १ योजन =८
x१०५ सें.मी.= ८ कि.मी.
सूर्य
सिद्धान्त (Suryasiddhanta) |
खगोल
भौतिकी(Astrophysics) |
पृथ्वी का अर्धव्यास = ८०० योजन
=६.४ x १०८सें.मी. |
पृथ्वी का अर्धव्यास =६.३७ x
१०८सें.मी. |
पृथ्वी की परिधि =५००० योजन =४x
१०९सें.मी. |
पृथ्वी की परिधि = ४x
१०९सें.मी. |
सूर्य का व्यास = ६५०० योजन, सूर्य
का अर्धव्यास = ३२५० योजन = २.६x १०९सें.मी. |
सूर्य का अर्धव्यास = ६.९६x
१०१०सें.मी. |
चन्द्रमा का व्यास =४८० योजन,
चन्द्रमा का अर्धव्यास = १.९२x १०८सें.मी. |
चन्द्रमा (Moon) का अर्धव्यास -
१.७९x १०८सें.मी. |
चन्द्रमा की कक्षीय परिधि = ३२४०००
योजन, कक्षीय परिधि का अर्धव्यास = ४.१x
१०१०सें.मी. |
चन्द्रमा की कक्षीय परिधि का
अर्धव्यास = ३.८४x १०१०सें.मी. |
सूर्य की कक्षीय परिधि - पृथ्वी को
केन्द्र पर मानते हुए = ४३३१५०० योजन, सूर्य की कक्षीय परिधि का
अर्धव्यास = ५.५१७ x १०११सें.मी. |
पृथ्वी की कक्षीय परिधि का
अर्धव्यास = १.४९ x १०१३सें.मी. |
दूरस्थ तारें कम से कम सूर्य की
दूरी से ६० गुना दूर हैं =५.५१७x १०११x ६० =३.३x
१०१३सें.मी. |
- |
आकाश कक्ष का अर्धव्यास =
५७७५३३३६००० योजन, = २.३ x १०२१सें.मी. |
हमारी आकाश गंगा की दूरी =
१०२३सें.मी. |
पृथ्वी की कक्षा से चन्द्रमा की
कक्षा का अनुपात- अर्धव्यास = ५१५९२/८००, = ६४.५ |
पृथ्वी की कक्षा से चन्द्रमा की
कक्षा का अनुपात अर्धव्यास = ३.८४x १०१०/६.३७x
१०३= ६०.३ |
सूर्य के कोवीय व्यास और पृथ्वी के
कोणीय व्यास में अनुपात =६५००/१६००, = ४.०६, = ४.१, अर्थात् ४
गुना |
सूर्य के कोणीय व्यास और पृथ्वी के
कोणीय व्यास में अनुपात ६.९x १०१०/६.३७x
१०८ = १०९.२, अर्थात १०९ गुना |
सूर्य और पृथ्वी की कक्षाओं में
अनुपात अर्धव्यास = ६८९७२९/८०० = ८६२.१६ |
सूर्य और पृथ्वी की कक्षाओं में
अनुपात अर्धव्यास = १.४९x १०१३/६.३७x १०८=
२३५४८ |
चन्द्रमा और पृथ्वी के अर्धव्यास
में अनुपात = ४८०१२/८०० = ४८०/२x ८०० = ०.३० |
चन्द्रमा और पृथ्वी के अर्धव्यास
में अनुपात =१.७९x १०८/६.३७x
१०८=०.२७ |
नियम |
केपलर के
नियम(१६८९-१६१९) |
पृथ्वी को केन्द्र में मानते हुए
सभी ग्रह वृत्तीय कक्षा में घूमते हैं, उसका केन्द्र थोड़ा सा
मूल बिन्दू से खिसका हुआ है। सभी ग्रह समान गति से घूमते हैं,
उनके भ्रमण काल भिन्न भिन्न हैं। ग्रह का आकार उत्तर-दक्षिण दिशा
में उसकी कक्षा के दोलन को प्रभावित करता है। |
पृथ्वी सहित सभी दीर्घवृत्ताकार
कक्षा में सूर्य की परिक्रमा करते हैं। उनकी क्षेत्रीय गति स्थिर
है। सूर्य के परिभ्रमण में लगे समय का वर्ग दीर्घ वृत्त के लघु
अक्ष के घन(cube)के समानुपाती होता है। |
कोणीय व्यास - = ८/८६२.५, =
१/१०७.७७, = १/१०८ रेडियन |
कोणीय व्यास - = २१८/२३५४८, =
१/१०८ |
कोणीय व्यास दोनों विचारधाराओं
में समान होने के कारण आकार में असमानता का प्रभाव यत्किंचित भी ग्रहण
की गणनाओं पर नहीं पड़ा है।
सूर्य
सिद्धान्त (Suryasiddhanta) |
खगोल
भौतिकी(Astrophysics) |
सूर्य के आकार और चन्द्रमा के आकार
में अनुपात = ६५००/४८० =१३.५ |
सूर्य के आकार और चन्द्रमा के आकार
में अनुपात =६.९६x १०१०/१.७४x १०८=
४०० |
सूर्य और चन्द्रमा की कक्षीय
त्रिज्याओं का अनुपात = ४३३१५००/३२४००० =१३.३७ |
पृथ्वी और चन्द्रमा की कक्षीय
त्रिज्याओं का अनुपात =१.४९x १०१३/३.८४x
१०१०= ३८८ |
अत: दोनों ही
पद्धतियों में ग्रहों के आकार उनके कक्षीय अर्धव्यास के समानुपाती है।
(देखें चित्र सं०- १४)
चित्र सं०- १४
सूर्य
सिद्धान्त (Suryasiddhanta) |
खगोल
भौतिकी(Astrophysics) |
यह ग्रहों की गति को स्थिर मानता
है। ग्रह की गति = १.०९x १०५सें.मी./सै., जैसे
चन्द्रमा की कक्षीय गति = ३२४x ८x १०५/२.३६x
१०६= १.०९x १०५सें.मी./सै. |
यह प्रकाश की गति को स्थिर मानता है
- प्रकाश की गति = २.९९८x १०१०सें.मी./सै. |
सूर्य की अपनी कक्षा में गति =
४३३१५००x ८x १०५/३.१६x १०७= १.०९x
१०५सें.मी./सै. |
पृथ्वी की अपनी कक्षा में गति - =
२x ३.१४x १.४९x १०१३/३.१०x १०७ =२.९८x
१०५सें.मी./सै. |
उपर्युक्त
विषयक अभी और विशेष चिन्तन की आवश्यकता
है। **************************************** References 1 प्रशस्तपाद,- भाष्य, (६०० ई.
पू.) "गुरुत्वं जलभूम्यो: पतन कर्मकारणम्। अप्रत्यक्षं
पतनकर्मानुमेयं संयोगप्रयत्न संस्कार विरोधि। अस्य
चाबादिपरमाणुरूपादिवन्नित्यत्व निष्पत्तय:।" 2 प्रशस्तपाद, -भाष्य, न्यायकंदली
टीका, (६०० ई. पू.) "अथावयवानां गुरुत्वादेव तस्य
पतनं तदवयवानामपि स्वावयवगुरुत्वात् पतनमिति सर्वत्र कार्ये
तदुच्छेद:। अथ व्यधिकरणेभ्य: स्वावयवगुरुत्वेभ्योऽवयवानां
पतनासम्भवात् तेषु गुरुत्वं कल्प्यते तदा अवयविन्यपि
कल्पनीयं न्यायस्य समानत्वात्।" 3 C.J.L. Wagstaff, Properties of
Matter, Gravity, Searls, London (१९३४). "Aristotle taught that
bodies fall at rates depending on their weights that the heavier a
body the faster it should fell. This doctrine passed indisputed till
the time of Galilio (१५९०), who asserted that all the bodies fall at
the same rate, unless they are so light as to be impeded by the air
resistance." 4 सूर्यसिद्धान्त, भूगोलाध्याय, पृथ्वी
वर्णन, (५०० ई. पू.) "सर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानमुपरिस्थितम्।
मन्यन्ते खे यतो गोलस्तस्य क्वोर्ध्वं क्व वाप्यध:।।" 5 भास्कराचार्य, गोलाध्याय, (१११४
ई.) "आकृष्टिशक्तिश्च मही तथा यत्, खस्थं गुरुं स्वाभिमुखं
स्वशक्त्या। आकृष्यते तत्पततीव भाति, समे समत्वात् क्व पतत्वियं
खे।।" 6 C.J.L. Wagstaff, Properties of
Matter, Gravity, Searls, London (१९३४). "Newton's law of
Universal gravitation : Every particle in the universe attracts
every other particle with a force directly proportional to the
product of their masses and inversely proportional to the square of
the distance between them." 7 सूर्यसिद्धान्त, (५०० ई.
पू.) पश्चाद् व्रजन्तोऽतिजवान्नक्षत्रै: सततं
ग्रहा:। जीयमानास्तु लम्बन्ते तुल्यमेव
स्वमार्गगा:।।२५।। प्राग्गतित्वमतस्तेषां भगणै: प्रत्यहं
गति। परिणाहवशाद् भिन्ना तद्वशाद् भानि
भुंजते।।३६।। -मध्यमाधिकार:। अदृश्यरूपा: कालस्य मूर्तयो
भगणाश्रिता:। शीघ्रमन्दोच्चपाताख्या ग्रहाणां
गतिहेतव:।।१।। तद्वातरश्मिभिर्वद्धास्तै:
सव्येतरपाणिभि:। प्राक्पश्चादपकृष्यन्ते यथासन्नं
स्वदिंमुखम्।।२।। प्रवहाख्यो मरुत् तांस्तु
स्वोच्चाभिमुखमीरयेत्। पूर्वापरापकृष्टास्ते गतिं यान्ति
पृथग्विधाम्।।३।। ग्रहात् प्राग् भगणार्धस्थ: प्राङ्मुखं कर्षति
ग्रहम्। उच्चसंज्ञोऽपरार्धस्थस्तद्वत् पश्चान्मुखं
ग्रहम्।।४।। उत्तराभिमुखं पातो विक्षिपत्यपरार्धग:। ग्रहं प्राग्
भगणार्धस्थो याम्यायामपकर्षति।।७।। महत्वान्मण्डलस्यार्क:
स्वल्पमेवापकृष्यते। मण्डलाल्पतया चन्द्रस्ततो
बह्वपकृष्यते।।९।। भौमादयोल्पमूर्तित्वाच्छीघ्रमन्दोच्चसंज्ञकै:। दैवतैरपकृष्यन्ते
सुदूरमतिवेगिता:।।१०।। अतो धनर्णं सुमहत् तेषां गतिवशाद्
भवेत्। आकृष्यमाणास्तैरेवं व्योम्नि
यान्त्यनिलाहता:।।११।। -स्पष्टाधिकार:। दूरस्थित:
स्वशीघ्रोच्चाद् ग्रह: शिथिलरश्मिभि:। सव्येत्तराकृष्टतनुर्भवेद्
वक्रगतिस्तदा।।५२।। भावाभावाय लोकानां कल्पनेयं
प्रदर्शिता। स्वमार्गगा: प्रत्यान्त्येते
दूरमन्यान्यमाश्रिता:।।२४।। -ग्रहयुत्यधिकार:।। मध्ये
समन्तादण्डस्य भूगोलो व्योम्नि तिष्ठति। बिभ्राण: परमां शक्तिं
ब्रह्मणो धारणात्मिकाम्।।३२।। अन्येपि समसूत्रस्था मन्यन्तेऽध:
परस्परम्। भद्राश्वकेतुमालस्था
लंकासिद्धपुरस्थिता:।।५२।। सर्वत्रैव महीगोले
स्वस्थानमुपरिस्थितम्। मन्यन्ते खे यतो गोलस्तस्य क्वोर्ध्वं क्व
वाप्यध:।।५३।। भचक्रं ध्रुवयोर्नद्धमाक्षिप्तं
प्रवहानिलै:। पर्येत्यजस्रं तन्नद्धा ग्रहकक्षा
यथाक्रमम्।।७३।। उपरिष्ठस्य महती कक्षाऽल्पाऽध:स्थितस्य
च। महत्या कक्षया भागा
महान्तोऽल्पास्तथाऽल्पया।।७५।। कालेनाल्पेन भगणं
भुंक्तेऽल्पभ्रमणाश्रित्। ग्रह: कालेन महता मण्डले महति
भ्रमन्।।७६।। स्वल्पयाऽतो बहून् भुंक्ते भगणान्
शीतदीधिति:। महत्या कक्षया गच्छन् तत:
स्वल्पंशनैश्चर:।।७७।। -भूगोलाध्याय:। |